रविवार, 7 अगस्त 2011

मीडिया मैनेजमेंट के बेताज बादशाह सज्जन




अनामी शरण बबल

दिल्ली के पूर्व सांसद सज्जन कुमार को दुर्ज्जन मानने या साबित करने का मेरे पास कोई ठोस तर्क सबूत या पुख्ता आधार नहीं है। सज्जन कुमार से मेरा
कोई गहरा या घनिष्ठ सा रिश्ता भी नहीं रहा है। पिछले कई सालों से हमारी मुलाकात भी नहीं है। हो सकता है कि रोजाना सैकड़ों लोगों से मिलने वाले
सज्जन कुमार को मेरा चेहरा या नाम भी अब याद ना हो। इसके बावजूद मीडिया मैनेजमेंट की वजह माने या इनके सहायक कैलाश का कमाल की सज्जन कुमार
को सामने फोकस किए बगैर वह मीडिया के सैकड़ों लोगों की उम्मीदों पर हमेशा खरा उतरते हुए सज्जन की सज्जन छवि को कायम रखने में सफल है।
मीडिया से परहेज करने वाले सज्जन को मीडिया में लोकप्रिय बनाए रखने में भी इसी कैलाश का हाथ रहा है।
आमतौर पर सज्जन के मन में मीडिया को लेकर ना कोई आदर है ना ही मीडियाकर्मियो से बड़ा प्यार दुलार ही है। इसके बावजूद दिल्ली के समस्त पत्रकारों
में सज्जन कुमार के प्रति ( तमाम आरोपों के बावजूद) सद्भाव वाला रिश्ता है। यही कारण है कि 1984 का मामला चाहे कोई भी करवट बदले, मगर
अखबरों में सज्जन को लेकर हमेशा सहानुभूतिपूर्ण नजरिया ही रहा है।
बात हम सज्जन को लेकर 1996 चुनाव से शुरू करते है। पहली बार लोकसभा चुनाव कवर करने की वजह से मैं काफी उतेजित और उत्साहित था। सज्जन
को लेकर मैंने पूरी तैयारी कर रखी थी। करीब एक माह तक लगातार खबरें देने की योजना के तहत मैने उन इलाकों को चुना, जहां पिछले पांच साल में सज्जन
कभी दोबारा ताकने भी नहीं गए थे। सज्जन के सामने बीजेपी ने वरिष्ठ नेता कृष्ण लाल शर्मा को मैदान में उतारा। आमतौर पर माना जा रहा था कि चुनाव
से पहले ही शर्मा को बलि का बकरा बनाकर चुनाव से पहले ही बीजेपी ने घुटने टेक दिए। मगर मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा एंड पूरी पार्टी ने चुनावी
तस्वीर को ही दिन रात की मेहनत और लगन से बदल दिया।
एक तरफ चुनावी धूम तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय सहारा में एंटी सज्जन खबरों का दौर चालू हो गया। इन खबरों से इलाके में क्या असर पड़ रहा था, यह तो
मैं नहीं जानता, मगर सज्जन एंड कंपनी खेमे में जरूर बैचेनी थी। दिन में कैलाश तो कभी भी बेसमय, सज्जन कुमार ने भी तीन चार बार फोन करके यह जरूर
पूछा कि अनामी भाई क्या दुश् मनी है। मैंने पलटते ही कहा, 'सज्जन भाई दोस्ती कब थी?' एंटी खबरों पर हैरानी प्रकट की। इसकी सफाई में मुझे कहना
पड़ा, 'भाईसाब, खबर गलत है, तो बताइए? चारा डालते हुए सज्जन ने कहा था अरे अनामी जी खबर चाहे जैसी भी हो, मगर असर तो पड़ता ही है।
मानना पड़ेगा कि पूरे चुनाव के दौरान एंटी खबरों के बावजूद फिर दोबारा सज्जन या कैलाश ने फिर ना कभी टोका और ना शिकायत ही की। चुनाव खत्म हो
गया और एक लाख 98 हजार वोट से सज्जन कुमार पराजित हो गए।
चुनाव के बाद सबकुछ सामान्य सा हो गया था, मगर दो साल के भीतर ही एक बार फिर लोकसभा चुनाव सिर पर गया। चुनावी सिलसिला शुरू होने से
काफी पहले ही एक बार फिर पत्रकारों को पटाने का खेल चालू हो गया। उस समय तक मोबाइल नामक खिलौने का इजाद इंडिया में नहीं हुआ था। सज्जन
खेमे की तरफ से हर चार छह दिन के बाद कभी रेवाड़ी का गजक, तो सोनीपत का हलवा, तो कभी किसी और शहर की धमाल मिठाई का डिब्बा सज्जन कुमार
की तरफ से मेरे घर पर आने लगा।
कैलाश के इस गेम को मैं समझ रहा था। फोन पर तो मैंने मिठाई ना भेजने की गुजारिश की, फिर भी मेरे घर पर कम से कम सात आठ मिठाई के डिब्बे चुके थे। एक दिन दफ्तर में कैलाश से मुलाकात हो गई, तो मैंने इसका विरोध जताया कि सज्जन से मेरा होली दीवाली का भी कोई नाता कभी नहीं रहा है, लिहाजा
सबसे पहले मिठाईयों के डिब्बे भेजना बंद करें। इस पर कैलाश ने दो टूक कहा, 'अनामीजी भाईसाहब ने मुझे बस आपको मैनेज करने के लिए कहा है।' बकौल
कैलाश, 'भाईसाहब ने कहा है कि तू केवल अनामी को फिक्स कर ले, मैं पूरी दिल्ली की मीडिया को मैनेज कर लूंगा।' एक सांसद का यह दावा कि मैं पूरी दिल्ली
की मीडिया को मैनेज कर लूंगा। यह बात मुझे चुभ गई। फौरन इसका प्रतिवाद करते किया, 'कैलाश भाई, सज्जन भले ही पूरी दिल्ली की मीडिया को मैनेज
कर लें, मगर वे अनामी शरण बबल को मैनेज नहीं कर सकते। मीडिया मेरे गरूर का हिस्सा है. मैं साधारण सा एक सिपाही भर हूं, मगर बात जब मीडिया को
अपनी रखैल बनाने पर गई है, तब तो मुझे मीडिया की लाज रखनी ही होगी।' एकदम साफ लहजे में कैलाश को फिर मिठाई ना भेजने के लिए आगाह
किया। इसके बावजूद अगले चार पांच दिनों के भीतर ही सज्जन की मिठाई का डिब्बा फिर मेरे घर पर धमका। इस बार हमने बंजारा कालम में मिठाईयों
से पत्रकारों को पटाने का मजाक उड़ाते हुए टिकट मिलने पर ही संदेह जताया। 1984 के भूत की वजह से 1998 के लोकसभा चुनाव में सज्जन का टिकट
एक बार फिर कट गया। यानी सज्जन के नाम पर कैलाश का पूरा एक्सरसाइज फालतू और मेरे घर भेजे गए तमाम डिब्बे बेकार हो गए।
चुनाव हारने के बावजूद शोर शराबा या हंगामा खड़ा करने की बजाय सज्जन इलाके में सक्रिय रहते हैं। जनता से इनका नाता रहे या ना रहे, मगर जिसे
इन्होंने अपना बनाया है, वह हमेशा सज्जन के लिए काम करते हुए दिख जाते हैं। सही मायने में सज्जन की असली ताकत यही लोग हैं, जो दिखावे के
बगैर सज्जन के लिए जान देने के लिए भी तैयार रहते हैं। हर साल पत्रकारों को सज्जन कुमार अपने सरकारी आवास (सांसद नहीं रहने पर भी किसी और
सांसद के आवास पर) पत्रकारों को सालाना पार्टी देना कभी नहीं भूलते। पार्टी के दिन सैकड़ों पत्रकारों को लाने और वापस पहुंचाने के वास्ते दर्जनों गाड़ी
हमेशा खड़ी रहती हैं। ठेठ देहाती अंदाज में सज्जन की पार्टी में गंवई अंदाज में लिट्टी-चोखा से लेकर गन्ना, मकई भूंजा समेत लजीज खाने का मजमा
सा लग जाता है। दो या तीन बार मुझे भी इसमें शामिल होने का अवसर मिला है। शायद यह इकलौता पत्रकार पार्टी होता है जिसमें नवोदित से लेकर
संपादकों को भी आना रास आता है। संपादकों में सर्वसुलभ आलोक मेहता के दर्शन भी यहां पर होना परम आवश्यक है।
सज्जन में शालीनता कूट-कूट कर भरी है। यही शराफत मीडिया को भाता है। मीडिया से नाता होने के बावजूद क्या कमाल है अगर कोई सज्जन का इंटरव्यू
लेकर दिखाए या 1984 के बारे में बात भी कर ले। मुलाकात की पहला ही शर्त होती है कि 1984 पर नो एनी सवाल। महज एक सांसद होने के बाद भी
आन बान और शान में सज्जन के सामने वीआईपी लोग भी दम मारते नजर आएंगे। इसमें कोई शक नहीं यदि 1984 के साथ सज्जन का कोई नाता नहीं
होता तो इनका पोलटिकल सफर कुछ और होता। शायद सज्जन का सूरज कभी नहीं डूबता(वैसे सूरज आज भी चमक रहा है) अपने पराजित विधायक भाई
रमेश को सांसद बनवा देना केवल सज्जन के बूते में ही था। इसके ठोस आधार भी है कि पिछले 15 साल में केवल एक बार सांसद होने के बाद भी जनता से
भले ही इनका साथ कम हो गया हो, मगर साथ देने वाले अपनों से सज्जन का साथ कभी कम नहीं हुआ है, जिसके बूते ही सज्जन को दुर्ज्जन कहने का
साहस आज किसी में नहीं है। भले ही परिसीमन के बाद राजधानी के राजनीतिक क्षेत्रों में भौगोलिक बदलाव गया, मगर विभिन्न आरोपों के बाद भी
मादीपुर गांव के मूल निवासी भूत(पूर्व) सांसद सज्जन कुमार को आज भी बाहरी दिल्ली और मीडिया को मैनेज करने में बेताज बादशाह ही माना जाता है।

माकांत गोस्‍वामी : पत्रकार से मंत्री बनने का सफर

अनामी शरण बबल PDF
अनामीशरणपत्रकारिता से राजनीति में आने वाले पत्रकारों की कोई कमी नहीं रही है, मगर दिल्ली की राजनीति में पिछले 15 साल के दौरान एकाएक (भाग्य) से चमकने वाले राजनीतिज्ञों में कम से कम तीन नामों पर चर्चा जरूर होनी चाहिए। हम यहां पर बात तो करेंगे केवल दिल्ली की शीला सरकार में कल (16 फरवरी) ही जगह पाने वाले (भूत) पूर्व पत्रकार रमाकांत गोस्वामी की। मगर गोस्वामी के बहाने कमसे कम दो और नेताओं का कोई जिक्र ना करना एक बड़ा अपराध सा होगा।
तीनों से मेरा साबका पड़ा है। लिहाजा पार्षद से विधायक और ( जनता के वोट से ज्यादा) किस्मत के धनी महाबल मिश्रा और लाटरी (बाजी) टिकट की बिक्री के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले विजय गोयल की सफलता की कहानी को सामने रखना भी जरूरी है।महज 10 साल के भीतर लाटरी(बाजी) नेता से सांसद और कैबिनेट मंत्री तक बनने वाले विजय गोयल की परियों जैसी सफलता की कहानी के पीछे दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की हर प्रकार की भूमिका रही है। दिवंगत प्रमोद महाजन की वजह से आसमानी सफलता हासिल करने वाले गोयल कभी डीयू नेता भी रहे हैं। अखबार के दफ्तरों में अपने प्रेस नोट्स को लेकर अक्सर ठीक से छपने के लिए अनुनय विनय और प्रार्थना करने वाले गोयल सांसद तक तो पत्रकारों के संपर्क में रहे, मगर पीएम अटल बिहारी वाजपेयी कैबिनेट में मंत्री बनते ही गोयल भाजपा के वरिष्ठ मंत्री बनकर पत्रकारों से परहेज करने लगे।
यही हाल लगभग, पार्षद से सांसद बनने वाले महाबल मिश्रा की रही। पत्रकारों को देखते ही हाथ जोड़ने (इस मामले में सपा नेता मुलायम को भी शर्मसार करने वाले) के लिए मशहूर महाबल में छपास रोग इतना था कि अपने प्रेस रिलीज को लेकर अखबार के दफ्तर तक जाने में कोई गुरेज नहीं होता था। अपनी मासूमियत और इनोसेंट फेस की वजह से महाबल पत्रकारों में काफी लोकप्रिय हो गए और उम्मीद से ज्यादा प्रेस में जगह पाने में हमेशा कामयाब रहे। हालांकि विधायक बनने के बाद महाबल में थोड़ा गरूर आ गया और सांसद बनने के बाद तो थोड़ा बौद्धिक होने का घंमड़ सिर चढ़कर बोलने लगा। यही वजह है कि अब महाबल दिल्ली की राजनीति में महा होने के बाद भी बली बनने का सपना शायद पूरा नहीं कर पाएंगे।
हां तो अभी बात हो रही थी, रमाकांत गोस्वामी की। अपनी पत्रकारीय प्रतिभा से ज्यादा बिरला मंदिर में अपने पुजारी रिश्तेदारों की सिफारिश से दैनिक हिन्दुस्तान में रिपोर्टर की नौकरी पाने वाले रमाकांत गोस्वामी दैनिक हिन्दुस्तान में चीफ रिपोर्टर भी बनने में कामयाब रहे। बात 1996 लोकसभा चुनाव की है। मैं गोस्वामी को जानता तो था, मगर मिलने का मौका कभी नहीं मिला था। कई तरह से बदनाम होने के बावजूद खासकर पत्रकारों में खासे लोकप्रिय भूत(पूर्व) सांसद सज्जन कुमार की जेब में रहने के लिए गोस्वामी ज्यादा बदनाम थे। तालकटोरा रोड़ वाले प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में सज्जन की प्रेस कांफ्रेस थी। हिन्दुस्तान की तरफ से संतोष तिवारी हमलोग के साथ ही बैठे थे, मगर सज्जन के बगल में एक मोटा सा आदमी बैठा था। प्रेस कांफ्रेस के दौरान कई बार सज्जन उससे सलाह लेते तो कई बार अपना मुंह आगे बढ़ाकर वह आदमी भी सज्जन को सलाह देता। आधे घंटे की प्रेस कांफ्रेस के दौरान सज्जन को आठ-दस बार अनमोल सलाह देने वाले के प्रति मेरे मन में कोई खास उत्कंठा नहीं जगी।
प्रेस वार्ता खत्म होने के बाद मैं और ज्ञानेन्द्र सिंह (दैनिक जागरण कानपुर से दिल्ली आए चंद माह भी तब नहीं हुए थे) डीपीसीसी के बाहर खड़े होकर बातचीत में मशगूल थे। तभी मेरी नजर सज्जन कुमार के उसी चम्‍मचे की तरफ गई, जो अब तक दो बार डीपीसीसी के अंदर से निकल कर बाहर खड़ी अपनी कार तक जाकर कोई सामान लेकर अंदर जा चुका था। चंद मिनटों में ही एक बार फिर वही चम्‍मचा एक बार फिर बाहर निकल कर अपनी कार की तरफ जाता हुआ दिखा। मैने ज्ञानेन्द्र से कहा चलो जरा माजरा क्या है देखें? अपनी कार से कुछ सामान निकाल कर वापस डीपीसीसी लौट रहे मोटे सज्जन को देखकर हाथ जोड़ते हुए मैंने कहा, सर आप कौन, पहचाना नहीं? तब तपाक से वह बोला तुम कौन? अपना आपा खोए बगैर धीरज के साथ मैंने जवाब दिया मैं राष्‍ट्रीय सहारा से अनामी और ये दैनिक जागरण से ज्ञानेन्द्र। तब थोड़ा सहज होकर सज्जन के चम्मचे ने कहा अरे, तुमने मुझे नहीं पहचाना? मैं एचटी से गोस्वामी। तब पूरी विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर मैंने फिर कहा नहीं सर नहीं पहचाना। तब सज्जन के चमच्चे ने कहा कमाल है, अरे भाई मैं रमाकांत गोस्वामी हिन्दुस्तान से। अब चौंकने की बारी मेरी थी। मेरी आंखे विस्मय से लगातार फैल रही थी। मैंने कहा कमाल है, सर आप और सज्जन के साथ, तो फिर संतोष तिवारी जी? लगभग सफाई देते हुए गोस्वामी ने कहा अरे सज्जन तो अपने भाई हैं, साथ देना पड़ता है। संतोष कवरेज के लिए आया था। इस सफाई के बाद भी मेरी हैरानी कम नहीं हो रही थी। बात को मोड़ने के लिए गोस्वामी ने शराब की कुछ बोतल और लिफाफे में रखे पकौड़े को दिखाते हुए पूछा खाओगे? जबाव देने की बजाय तपाक से मैंने पूछा क्या आप खाते है? इस पर जोर देते हुए गोस्वामी ने कहा, नहीं मैं तो पंड़ित हूं। तब मैंने पलटवार किया। नहीं सर, मैं तो महापंड़ित हूं, इसे छूता तक नहीं। मेरी बातों से वे लगभग झेंप से गए। इसके बावजूद अपने दफ्तर में कभी आने का न्यौता देकर अपनी पिंड़ छुड़ाई।
लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद मतगणना से एक दिन पहले तालकटोरा स्टेडियम में हो रही तैयारियों का जायजा लेने गया था। वहां पर एक बार फिर गोस्वामी से टक्कर हो गई। इस बार हम दोनों एक दूसरे को पहचान गए। मैंने गोस्वामी से पूछा- सर, परिणाम में क्या होने वाला है? एकदम बेफ्रिक होकर गोस्वामी ने कहा होने वाला क्या है? बस देखते रहो सज्जन भाईसाहब किस तरह जीतते है। इस पर मैंने आपत्ति की और बोला कि मामला कुछ दूसरा ही होने वाला है। तब ठठाकर हंसते हुए गोस्वामी ने कहा, 'तुम अनुभवहीन लोग पोलिटिकल हवा को नहीं जानते।' खैर बात को तूल देने की बजाय मैं दफ्तर लौट आया और अगले ही दिन बीजेपी के कृष्णलाल शर्मा ने सज्जन कुमार को एक लाख 98 हजार मतों से हरा कर सज्जन कुमार एंड़ कंपनी का बोलती ही बंद कर दी थी। हालांकि इसे शर्मा की जीत की बजाय इसे तत्कालीन सीएम साहिब सिंह वर्मा और पूरी बीजेपी की जीत कहें तो भी कोई हैरानी नहीं।
हिन्दुस्तान में नौकरी करने के बावजूद बिरला से ज्यादा सज्जन की वफादारी के लिए (कु) या विख्यात गोस्वामी को सज्जन सेवा का पूरा फल मिला और दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान सज्जन की पैरवी से रमाकांत 1998 में पत्रकारिता से अलग होकर अपने चेहरे पर पोलिटिकल मुखौटा लगाने में कामयाब रहे। निगम सदस्य विधायक होने के नाते गोस्वामी से मेरी एक और मुठभेड़ 2000 या 2001 में हुई। जब वे निगम की एक बैठक में बतौर विधायक एमसीडी सदन में आए। हम पत्रकारों को देखते ही गोस्वामी ने सबों को बेटा- बेटा कहकर प्यार दिखाना शुरू कर दिया। अपने पिता के रूप में थोड़ी देर तक बर्दाश्त करने के बाद अंततः मैने टोका गोस्वामीजी नेता का चेहरा तो ठीक है, मगर हम पत्रकारों के बाप बनने की चेष्टा ना करें। कई और पत्रकारों ने भी जब आपत्ति की तो फिर गोस्वामी खिसक लिए।
सज्जन की वफादारी निभाते हुए ही गोस्वामी ने शीला दीक्षित के भी वफादार साबित हुए। जिसके ईनाम के रूप में गोस्वामी को मंत्री होने का परम या चरम सुख भी हासिल हो गया है। मेरी गोस्वामी से कोई शिकवा शिकायत वाला रिश्ता भी कभी नहीं रहा, इसके बावजूद मंत्री बनने की खबर सेमुझे कोई खुशी नहीं हुई। इसके बावजूद मैं कामना करूंगा कि वे मंत्री की पारी को 2013 तक  नाबाद जरूर रहे।